वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः हम पुरोहित राष्ट्र को सदैव जीवंत और जाग्रत बनाए रखेंगे।’

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः हम पुरोहित राष्ट्र को सदैव जीवंत और जाग्रत बनाए रखेंगे।’

‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः’ यजुर्वेद के नौवें अध्याय की 23वीं कंडिका से लिया गया है। इसका अर्थ है, ‘हम पुरोहित राष्ट्र को सदैव जीवंत और जाग्रत बनाए रखेंगे।’
वाज॑स्ये॒मं प्र॑स॒वः सु॑षु॒वेऽग्रे॒ सोम॒ꣳ राजा॑न॒मोष॑धीष्व॒प्सु। ताऽअ॒स्मभ्यं॒ मधु॑मतीर्भवन्तु व॒यꣳ रा॒ष्ट्रे जा॑गृयाम पु॒रोहि॑ताः॒ स्वाहा॑ ॥२३॥

पद पाठ
वाज॑स्यः। इ॒मम्। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। सु॒षु॒वे। सु॒सु॒व॒ इति सुसुवे। अग्रे॑। सोम॑म्। राजा॑नम्। ओष॑धीषु। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। ताः। अ॒स्मभ्य॑म्। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। भ॒व॒न्तु॒। व॒यम्। रा॒ष्ट्रे। जा॒गृ॒या॒म॒। पु॒रोहि॑ता॒ इति॑ पु॒रःऽहि॑ताः। स्वाहा॑ ॥२३॥

शिष्ट मनुष्यों को योग्य है कि सब विद्याओं को चतुराई, रोगरहित और सुन्दर गुणों में शोभायमान पुरुष को राज्याधिकार देकर, उसकी रक्षा करनेवाला वैद्य ऐसा प्रयत्न करे कि जिससे इसके शरीर बुद्धि और आत्मा में रोग का आवेश न हो। इसी प्रकार राजा और वैद्य दोनों सब मन्त्री आदि भृत्यों और प्रजाजनों को रोगरहित करें, जिससे ये राज्य के सज्जनों के पालने और दुष्टों के ताड़ने में प्रयत्न करते रहें, राजा और प्रजा के पुरुष परस्पर पिता पुत्र के समान सदा वर्त्तें ॥२३॥

पुरोहित का अर्थ होता है जो इस पुर का हित करता है। प्राचीन भारत में ऐसे मनीषियों, चिंतकों, युगद्रष्टा व्यक्तियों को पुरोहित कहते थे, जो राष्ट्र का दूरगामी हित समझकर उसकी प्राप्ति की सुनिश्चित व्यवस्था परिपूर्ण करते थे। पुरोहित में चिन्तक और साधक दोनों के गुण होते हैं, जो सही परामर्श दे सकें।
ऐसे ऊर्जावान व्यक्तियों को हम पुरोहित कहते हैं जो अपने संकल्पों, विचारों व सदकार्यों से हमारा, समाज का, राष्ट्र का, तथा सम्पूर्ण सृष्टि का हित करने, प्राण पन से जुटे हो,उक्त प्रयोजनों में प्रभावी व समर्थ हों,
यजुर्वेद में लोक व्यवहार से पूर्ण उपदेश वर्णित किए गए हैं।

ओ३म् वाजस्येमं प्रसवः सुषुवेऽग्रे सोमं राजानमोषधीष्वप्सु।

ताऽअस्मभ्यं मधुमतीर्भवन्तु वयं राष्ट्रे जागृयाम पु॒रोहिताः स्वाहा।। (यजुर्वेद ९/२३)

यजुर्वेद मंत्र ९/२२ और ९/२३ में ईश्वर की आज्ञा है कि मनुष्यों को संसार में कैसे वर्तना चाहिए अर्थात् कैसे कर्म करना चाहिए। जैसे मंत्र ९/२२ में ईश्वर मनुष्यों को आज्ञा देता है कि हे मनुष्य! मैं तुझे कृषि के कार्य के लिए नियुक्त करता हूँ। तू कृषि से उत्पन्न अन्न आदि की रक्षा कर इत्यादि।

इसी तरह यजुर्वेद मंत्र ९/२३ का अर्थ है कि – हे मनुष्यो! जैसे मैं (अग्रे) पहले (प्रसवः) ऐश्वर्य से युक्त होकर (वाजस्य) ज्ञान द्वारा इस (सोमं) सोम के समान सब दुःखों का नाशक

[भाव यह है कि समाधि में सोम रस का अनुभव करके योगी सब दुःखों का नाश कर लेता है] (राजानमं) विद्या, न्याय और विनय से गुणयुक्त राजा को (सुषुवे) उत्पन्न करता है।

[भाव है कि यहाँ विद्या अर्थात् चारों वेदों का ज्ञान पाकर जब राजा न्याय करता है और प्रजा का दुःख सुनने का समय तथा विनयपूर्वक व्यवहार होता है जो कि राजा वेदाध्ययन और स्वयं की तपस्या से ग्रहण करता है तब ही वह राजा बनने के योग्य होता है।

इसी प्रकार राजा की रक्षा से देश में जो (ओषधीषु) औषधि, वनस्पति और यव अर्थात् जौ इत्यादि औषधियाँ जो पृथिवी पर उत्पन्न होती है। और (अप्सु) जो जलों में उत्पन्न होने वाली औषधियाँ है वो भी राजा की रक्षा से पूर्ण रूप से उत्पन्न हों और हमारे लिए (मधुमती:) पूर्ण रूप से मधुरता लिए हुए (भवन्तु) हों।

भावार्थ यह है कि राजा किसानों का हितकारी होकर धन आदि से सभी प्रकार से मदद करता है तब अन्न, जल, वनस्पतियाँ, औषधियाँ आदि सब प्रजा को सरलता से सुलभ होती हैं।

मंत्र के तीसरे भाग का अर्थ है कि – जैसे (स्वाहा) सत्याचरण के द्वारा [यहाँ स्वाहा का अर्थ सत्याचरण है]

(पुरोहिताः) सबके हितकारी [यहाँ पुरोहितं का अर्थ सब जनता का हित करने वाला मंत्री आदि सेवक] (वयं) हम मंत्री, राजनेता आदि सेवक लोग (राष्ट्रे) राज्य में सदा (जागृयाम) आलस्य रहित होकर पुरुषार्थी बनकर जनता से व्यवहार करें [यहाँ पुरोहित का अर्थ मंत्री, राजनेता आदि सेवक है क्योंकि इस मंत्र का देवता अर्थात् विषय जो है वह राजा है इसलिए पूरे मंत्र में राजा ही छाया हुआ है। अतः पुरोहित भी राजा के मंत्रियों से सम्बंधित हैं।

परन्तु ऋग्वेद के पहले मंत्र में “अग्निमीऴे पुरोहितं” में मंत्र का विषय परमेश्वर है अतः ऋग्वेद के मंत्र में पुरोहित का अर्थ पुरियों की रक्षा करने वाला।
यह संसार एक पुरी है जैसे जनकपुरी, विकासपुरी, आदि तो इतनी बड़ी पुरी जो संसार के रूप में है उसकी रक्षा करने वाले पुरोहित अर्थात् परमेश्वर की हम इच्छा करें ।